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Non-erotic - शीर्षक - एक छोटी से कहानी लेखक - अरविन्द पावड़&

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२७ बरस बीत गए थे खुशियों कि आस संजोये हुए। फूलो ने अपनी आँखों के आंसुओं को सुखा दिया था। मानो उसकी आँखे और दिल पत्थर के बन गए थे। बचपन में अपनी माँ और बाबा की सुनायी गयी कहांनियों ने उसे वो हिम्मत दी थी जो वो आज तक अपने आप को सम्भाले हुयी थी। उपरवाले पर उसे पूरा विश्वास था कि वो एक दिन उसके दुःख वैसे ही हर लेगा जैसे बूढ़े सुदामा और मीराबाई के हर लिए थे। फूलोदेवी ठाकुर जगत सिंह कि सुपुत्री थी। जगत सिंह लखनऊ के राधेपुर गांव के निवासी थे और एक प्यारे से पुत्र महेंद्र और पुत्री फूलो के पिता थे। फूलो महेंद्र से ३ साल बड़ी थी। फूलो कि माताजी का देहावसान तभी हो गया था जब फूलो मात्र १० वर्ष की थी। भगवान ने जगत सिंह जी को सब कुछ दिया था। ५०० बीघा जमीन के अकेले वारिस थे। धनधान्य कि कोई कमी न थी। बारहवीं तक अंग्रेजी भाषा का अध्ध्यन भी किया हुआ था अत: विद्या को धन से ऊपर मानते थे। पाश्चात्य सभ्यता से भी प्रभावित थे। इसी वजह से अपनी पुत्री का विवाह किसी धनी और अनपढ़ से करने कि जगह किसी कुलीन कुल के पढ़े लिखे व्यक्ति से करना चाहते थे। धन का मोह न था उन्हें। और जब एक दिन पंडित ज्ञानप्रसाद लखनऊ शहर के निवासी और पुलिस में दरोगा कन्नूलाल के सुपुत्र सुभाष का रिश्ता फूलो के लिए ले के आये तो जगत सिंह फूले न समाये। कुछ ही दिनों में विवाह भी संपन्न हो गया। पर समय का कुछ ऐसा कुचक्र हुआ कि शादी के कुछ समय के अंतराल में ही महेंद्र कि मृत्यु हो गयी। बिलकुल भला चंगा नौजवान था। किसी सज्ज्न ने सुझाया कि किसी ने टोटका कर दिया होगा। जरुर कोई दुश्मन होगा जो आपकी सम्पन्नता और भाग्य से रश्क़ खाता होगा। परन्तु अब इन सब बातों का कोई फायदा न था। आखिर पुत्र तो वापस आ नहीं सकता था। जगत सिंह पुत्र के गम में बीमार रहने लगे। लोगो से मिलना जुलना भी बंद हो गया था और न ही कहीं घूमने जाते थे। और एक दिन वो भी इस दुनिया को छोड़ के चले गए। पर जाने से पहले कुछ ऐसा करना चाहते थे जो बेचैन और दुखी मन को शांति दे सके सो सारी जमीन और संपत्ति बेच के सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए कांग्रेस को समर्पित कर दी। अब फूलो कि दुनिया में बस पतिदेव सुभाष ही रह गए थे। सुभाष बाबू पढ़े लिखे व्यक्ति थे। इंग्लैंड से वकालत कर के लौटे थे और समाज में ऊँचा रुतबा रखते थे। सुभाष के पिताजी कन्नूलाल पुलिस में दरोगा थे। कन्नूलाल एक सख्त और ईमानदार अधिकारी थे। कानून का पालन करना और करवाना वह अपना परम कर्त्तव्य समझते थे। जब जगत सिंह ने अपनी संपत्ति स्वतंत्रता संग्राम में दान की तो कन्नूलाल अपने क्रोध को रोक न पाए। अरे धन दान करना भी था तो साधू संतो को करते, पर ये तो अराजकता को ही देशभक्ति समझ बैठे। कन्नूलाल के कटु वचन फूलो को ह्रदय में तीर कि भांति लग रहे थे पर पिताजी ने समझाया था कि कभी अपने सास ससुर का अपमान न करना, पलट के जवाब न देना चाहे कुछ क्यों न हो जाये। बेचारी मन ही मन रो रही थी पर मजाल जो एक शब्द मुँह से निकल जाये। कन्नूलाल कि नजर में देशभक्ति का मतलब सरकार के बनाये नियम और कानूनों का पालन करना था। समझते थे कि अंग्रेज हमारे भले के लिए ही सरकार चलाते हैं। होते अभी राजा महाराजा तो क्या इतना तकनीक का विकास हो पाता। रेल, ट्राम, बिजली, टेलीग्राफ सब कुछ तो अंग्रेज लाये हैं। क्या ऐसी आजादी मिल पाती जैसी अभी मिलती है। यहाँ तो जी कानून का राज चलता है जहाँ रजा और रंक सब बराबर हैं कानून के सामने। बस इसी फिरंगी प्रेम कि वजह से सुभाष बाबू को वक़ालत पढ़ने विदेश भेजा था। आखिर यहाँ रहते तो झूठी देशभक्ति के बहकावे में भी आ सकते थे और फिर उनके भविष्य का और मुख्यत: परिवार कि इज्जत का तो बंटाधार ही हो जाता। सुभाष बाबू बचपन से ही पढाई में होशियार थे। पढाई अपने शहर की ही एक पाठशाला में शुरू की थी। व्यायाम और खेलने का शौक भी रखते थे। पतंगबाज़ी में तो पूरे शहर में उनका मुकाबला कोई न कर सकता था। बच्चों का मष्तिष्क उनके ह्रदय कि भाँति ही कोमल होता है। आसानी से किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है। जब सुभाष बाबू छठी कक्षा में थे तब पाठशाला में एक नए मास्टरजी आये थे। मोहनलाल मास्टरजी बंगाल के रहने वाले थे और सम्पूर्ण देश-भ्रमण का शौक रखते थे। दो-चार साल एक जगह रहते। किसी पाठशाला में पढ़ा के धन अर्जित करते और फिर किसी नए स्थान कि ओर निकल लेते। अब तक बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम और मध्य भारत का भ्रमण कर चुके थे। जीवन के ४४ बसंत देख चुके थे। और अबकी बार अवध आ पहुंचे थे। मोहन लाल जी कट्टर गांधीवादी थे और अपने व्यवसाय का देशहित में उपयोग करना बखूबी जानते थे। यूँ तो इतिहास और गणित विषय के अध्यापक थे परन्तु कक्षा में मुख्यत: गांधी जी के विचारो को ही फैलाया करते थे। देश भ्रमण का असल मकसद भी यही था। देश के लिए मर मिटने वाले बहादुरों कि टोली तैयार करना। सुभाष बाबू के ऊपर मास्टरजी ने मानो जादू कर दिया था। गुरु के रंग में चेला भी रंगने लगा था। पर दरोगा कन्नूलाल ने बाल धूप में तो सफ़ेद किये नहीं थे। इन गांधीवादियों और क्रांतिकारियों से भिड़ने का पुलिसिया अनुभव कब काम आता। जल्दी ही ताड़ गए। मोहनलाल मास्टरजी को बोरिया बिस्तर समेटने पर मजबूर कर दिया और सुभाष बाबू को विलायत भेज दिया उनकी मर्जी के खिलाफ। सुभाष बाबू की माताजी सावित्रीदेवी ने रो-रो के घर भर दिया पर कन्नूलाल टस से मस न हुए। १३ बर्ष के बालक को माँ से अलग कर दिया। सावित्रीदेवी ने समझाने का भरकस प्रयत्न किया कि सुभाष को घर बैठा के ही पढ़ा लेंगे, घर से बाहर ही न जाने देंगे तो कैसे किसी का दुष्प्रभाव पड़ेगा। परन्तु कन्नूलाल को न मानना था न वो माने। सावित्रीदेवी को समझा दिया। बोले मैं पिता हूँ सुभाष का, उसका बुरा तो नहीं चाहता हूँ। क्या मेरा दिल नहीं करता कि रोज सुबह उठ के उसका चेहरा देखूं। पर पिता होने का फ़र्ज़ भी तो निभाना है, क्या उसका भविष्य यूँ ही चौपट हो जाने दूँ। सीने पे पत्थर रख के यह कठोर निर्णय किया है मैंने। एक आदर्श अर्धांगिनी और आदर्श माँ कि तरह तुम्हे मुझे ऐसे निर्णय लेने में मदद करनी चाहिए न कि रो-रो के मुझे कमजोर करना चाहिए। सावित्रीदेवी भोली-भाली महिला थीं। कन्नूलाल के इन भावुक तर्कों का कोई जवाब न था उनके पास। समझाना पड़ा खुद को। २३ बर्ष कि उम्र में सुभाष बाबू वापस लौटे तो घर पर होली, दीवाली और दशहरा तीनो त्योहारों के बराबर उत्सव मनाया गया। अगले वर्ष फूलोदेवी से विवाह भी हो गया। कन्नूलाल ने सोचा था कि बेटा बड़ा बैरिस्टर बन के उनका नाम रोशन करेगा, परन्तु उन्होंने जो सोचा उसका तो उल्टा ही हो रहा था। सुभाष बाबू को विलायत भेजा था फिरंगी बनने पर वो तो कुछ और ही सिख आये वहाँ से। बालक सुभाष के मन में मास्टर मोहनलाल ने जो बीज बोया था वह अब पूरा पेड़ बन चूका था। विदेश में रहते हुए सुभाष बाबू ने उस अंतर को बखूबी महसूस किया जो एक ब्रिटिश और एक हिंदुस्तानी के बीच था। वो आजादी जो ब्रिटेन अपने लोगो को दे रहा था, भारतीयों से छीन रहा था। सुभाष बाबू विदेश से लौटे तो एक संकल्प लेकर। देश कि आजादी का संकल्प। आते ही देशभक्तो के, क्रांतिकारियों के और कांग्रेसियों के लिए फ्री में केस लड़ने लगे थे। कन्नूलाल का बूढ़ा दिल ये देख कर बैठने लगा, बार बार ईश्वर से प्रार्थना करते कि सुभाष को सद्बुद्धि दे, सुभाषबाबू को समझाने का भरपूर प्रयत्न किया, पर अब सुभाष बाबू बच्चे न रह गए थे कि आसानी से समझ जाते या भय से मान जाते। बहरहाल सुभाष बाबू अपने पिता से प्रेम तो बहुत अधिक किया करते थे। और उनके प्रति अपनी कुछ जिम्मेदारियों से भली प्रकार से वाकिफ थे। सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी पिता कि पौत्र-पौत्रियों कि इच्छा पूरी करना। जल्दी ही सुभाष २ पुत्रों के पिता बन गए। लेकिन उनका समय अब घर से ज्यादा आंदोलनो में बीतता। वे खुल के धरनों और प्रदर्शनों में भाग लेने लगे थे। गांधी और नेहरू से प्रभावित सुभाषबाबू कई बार जेल भी गए। और इस प्रकार कन्नूलाल कि इज्जत तार-तार करने में सुभाषबाबू ने कोई कसर न छोड़ी थी। सुभाषबाबू प्रेम तो फूलोदेवी से भी बहुत करते थे पर देश उनके लिए सर्वप्रथम था। अत: फूलो को पहले ही कह दिया था कि शायद इस जनम में उसका कर्ज न उतार पाएं पर अगले ६ जनम में उसके दास बन के रहेंगे और हर सुख देंगे। सुभाषबाबू कई-कई दिन घर से बाहर रहते, और जेल तो मानो उनका दूसरा घर बन गयी थी। फूलो ने पति के वचनों को आदेश कि तरह स्वीकार कर लिया था। परन्तु कन्नूलाल अवसादग्रस्त रहने लगे थे। नौकरी से रिटायर हो चुके थे और बुढ़ापे में ऐसे बुरे दिन देखने पद रहे थे। पुत्र को सद्बुद्धि प्राप्त हो जाये इसलिए तीर्थ यात्रा का विचार बना लिया था, पर नागरूपी काल का कुछ पता नहीं। हरिद्वार में गंगास्नान कर रहे थे, ऐसा पैर फिसला के संभल ही न पाये। धारा तेज थी, शव भी न मिला। १० वर्ष बीत गए पर आजादी का सपना अभी दूर था। अब सुभाषबाबू का मन गांधीजी कि नीतियों का समर्थन न कर पा रहा था। आखिर कब तक यूँ पिट-पिट कर संघर्ष करते रहेंगे। क्या अब कुछ और तरीका अपनाने का समय नहीं आ गया है। सुभाषबाबू को लगने लगा था कि बिना बल-प्रयोग किये, अंग्रेजों को देश से नहीं निकाला जा सकता। पर एक-आध अंग्रेज को गोली मार देने से भी तो कुछ नहीं होने वाला। सुभाषबाबू का साहस जवाब देने लगा था, पर फूलो अब भी पति का साहस बढाती रहती। परन्तु नियति ने जैसे सुभाषबाबू की सुन ली थी, द्वितीय विश्व-युद्ध शुरू हो गया था, और सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज का गठन कर लिया था. ३८ वर्ष के हो चुके थे पर इस घटना ने २० वर्ष के युवक जैसा उत्साह भर दिया था उनके मन में। एक रात सोते हुए बालकों के सर पे हाथ फेरा और फूलो को अलविदा कह के निकल गए घर से। बोले के शायद वापस न आ पाऊँ, पर ये न समझना कि तुम्हे प्यार नहीं करता। तुम हर समय मेरे दिल में रहती हो और रहोगी। फूलो का गला रुंधा जा रहा था पर आवाज को दृढ करके बोली कि मेरा विश्वास है आप वापस आओगे। बस और कुछ कहने कि हिम्मत न थी। सुभाषबाबू ने पीछे मुड़ के न देखा, कमजोर पड़ने का डर महसूस कर रहे थे शायद। फूलो एकटक सुभाषबाबू को जाते हुए देखती रही, चाँद कि रोशनी में बस हवा में परछाईं सी चलती हुयी दिख रही थी, कुछ क्षणों में परछाईं अँधेरे में गुम हो गयी, फूलो का कलेजा फटा जा रहा था, शरीर सुन्न हो गया था, गालो से टप-टप टपकते आँसू सन्नाटे को तोड़ रहे थे, फूलो ने एक नजर अपने बेटों को देखा और फिर उसने निश्चय किया कि वो नहीं रोयेगी।

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